Call : 9302101186, 9300441615 | MAP
­

महर्षि दयानन्द के अनुसार अर्थ वह है जो धर्म से ही प्राप्त किया जाए। जो अधर्म से सिद्ध होता है, उसको अनर्थ कहते हैं। इसका अर्थ यह है कि अपने परिश्रम से राज्य-नियमों के अनुसार जो अर्जित किया जाता है, वही अर्थ है । चोरी, लूट-खसोट, शोषण आदि से नहीं वरन् किन्हीं सुनिश्‍चित नियमों से धन ग्रहण करें। आज यह सामान्य धारणा है कि बिना अधर्म के, झूठ के अर्थ की प्राप्ति अथवा उसका अर्जन असम्भव है। किन्तु यह धारणा उन लोगों की है जो अनुचित एवं अनैतिक उपायों से ‘काला‘ धन कमाना चाहते हैं।ऐसा धन अन्तत: फलदायी नहीं होता, दुःखदायी होता है। महर्षि दयानन्द ने बजाज और खरीददार के कई प्रकार के उदाहरण देकर बताया है।

कि धर्म और सत्य के आधार पर किया गया व्यापार अधिक फलदायक होता है और व्यापारिक दृष्टि से अधिक उपयोगी रहता है। आज भी व्यापार के मूल में ‘साख‘ अथवा परस्पर विश्‍वास की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका है। आज अर्थ-संग्रह में बेईमानी का कारण जहाँ नैतिक मूल्यों का हनन है, वहाँ सरकारी नियमों की अस्पष्टता, उनके कार्यान्वयन में ढील और दण्ड-व्यवस्था के दोष भी हैं। हमें सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था को ईमानदारी और धर्म पर केन्द्रित करना होगा।
maharshi dayanand saraswati

अर्थ-संग्रह (कर प्रणाली द्वारा) :-

महर्षि दयानन्द कहते हैं जैसे बगुला ध्यानावस्थित होकर मछली को पकड़ने के लिए ताकता है वैसे राजा अर्थ-संग्रह का विचार किया करे। अर्थात् उसे अर्थ-संग्रह के लिए अपना ध्यान केन्द्रित करना होगा। राजा के अर्थ-संग्रह-रूप महान कार्य में थोड़ी सी ढील होते ही देश की अर्थव्यवस्था शिथिल हो जाती है।

राज्य के लिए अर्थसंग्रह का प्रधान साधन आयकर है। महर्षि दयानन्द ने सुव्यवस्थित कर व्यवस्था का विधान किया है और निम्नलिखित नीति-वाक्य निर्धारित किए हैं-
(क) जिनसे राजपुरुष और प्रजाजन सुखी हों, राजा और राजसभा राज्य में वैसा कर स्थापन करें।
(ख) जैसे जोंक, बछड़ा और भंवरा थोड़े-थोड़े भोग्य पदार्थ ग्रहण करते हैं वैसे राजा प्रजा से थोड़ा-थोड़ा वार्षिक कर लेवे।
(ग) अति लोभ से (इतना कर कभी न ले कि) दूसरों के सुख के मूल को नष्ट करे।
(घ) जैसे राजा और कृषीवल आदि प्रजा सुखी रहे वैसा कर-प्रबन्ध प्रजा में करे।
राजा (शासक) का कराधान करने का प्रयोजन राज्य का संचालन अर्थात् राज्य की प्रजा का संरक्षण एवं उसकी सर्वाङ्गीण उन्नति कर उसे सुख पहुंचाना है। यदि करों के भार से प्रजा दबने लगे, उस कारण उसके जीवन-यापन में भी कठिनाई हो तो कर उसकी उन्नति व सुख के स्थान पर उसे कष्टदायक सिद्ध होंगे। वर्तमान समय में हमारे देश में धनी वर्ग (शासक, राज्याधिकारी व व्यापारी) कर की चोरी करता है और निर्धन वर्ग करों के भार से पिसता है । वस्तुत: कर की चोरी करने वाला देशद्रोही है।
आयकर किस प्रकार लगाया जाए? इसका भी उल्लेख महर्षि दयानन्द ने किया है। उनके द्वारा उल्लिखित आयकर को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है- हमारे विचार से 50वां भाग 2 प्रतिशत होता है न कि 50 प्रतिशत। क्योंकि यहाँ ‘पचासवाँ भाग‘ शब्द है न कि पचास भाग।
(क) व्यापार करने वाले व शिल्पी के सुवर्ण और चांदी का जितना लाभ हो उसमें से पचासवाँ भाग कर रूप में देना चाहिए। इस स्थापना की विस्तृत व्याख्या यह होगी कि धनी वर्ग से उनकी आय का 50 प्रतिशत कर रूप में लेना अभीष्ट है।
(ख) चावल आदि अन्नों में छठा, आठवाँ, बारहवाँ भाग लिया करे। यह ध्यान रखे कि इतना कर आदि न ले कि उससे किसान आदि को खाने-पीने और धन की कमी का कष्ट हो। यह कर मध्यम वर्ग का है। मध्यम वर्ग से कर लेते हुए कर निर्धारण में लचीलापन होना चाहिए। किसान, छोटे दुकानदार तथा अन्य मध्यम वर्ग के लोगों की आय पर उनके जीवन-यापन की समस्याओं को ध्यान में रखकर कर लगाना चाहिए। इस प्रसंग में महर्षि दयानन्द विशेष रूप से लिखते हैं कि क्योंकि प्रजा के धनाढ्य, आरोग्य, खानपान आदि से सम्पन्न रहने से राजा की ही उन्नति होती है। अत: इन पर करों का अधिक भार न लाद दें।
(ग) जो लम्बे मार्ग में समुद्र की खाड़ियाँ व नदी तथा बड़ी नदी में जितना लम्बा देश हो उतना ही कर स्थापन करे। महासमुद्र में निश्‍चित कर-स्थापन नहीं हो सकता। जिससे राजा और ब़ड़ी-बड़ी नौकाओं को समुद्र में चलाने वाले दोनों लाभयुक्त हों वैसी व्यवस्था करे। यहाँ विदेशों से व्यापार और उस व्यापार से हुए लाभ पर लगाए कर का उल्लेख है। यह कर भी राजा समय-समय पर निर्धारित करता रहे। मूल बात एक है कि उससे राज्य और व्यापार दोनों का लाभ हो।

महर्षि दयानन्द ने कर-निर्धारण के सम्बन्ध में केवल यही संकेत दिए हैं। इनसे यह सूचित होता है कि कर-निर्धारण में दो बातों का ध्यान रहे-
(क) प्रजा की सुविधा और सुख
(ख) व्यापार की उन्नति।

महर्षि दयानन्द ने नौकरी पेशा लोगों पर कोई कर लगाने का परामर्श नहीं दिया, उसकी चर्चा भी नहीं की। नौकरी पेशा व्यक्ति पर कर लगाना विचित्र ही प्रतीत होता है। जो पैसा सरकार व्यक्ति को देती है, उसी में से कुछ पैसा वापस ले लेने में सरकार को जो व्यवस्था करनी पड़ती हैं, वह देश की जनता पर ही आर्थिक भार है। नौकरी के अनुसार व्यक्ति का वेतन निर्धारित करते हुए कर का भी ध्यान रख लिया जाए तो यह एक हाथ से देना और दूसरे हाथ से लेने का झंझंट न रहे। नौकरी-पेशा व्यक्ति पर कर-निर्धारण का प्रयोजन यह है कि उस पर अन्य स्रोतों से प्राप्त आय पर भी कर लगाया जा सके। हमारी सम्मति में अन्य स्रोतों पर ही अंकुश लगाना चाहिए। इसी प्रसंग में यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि देश की वर्तमान स्थिति को देखते हुए अतिरिक्त समय के द्वारा प्राप्त आय पर अधिकाधिक रोक लगाने का प्रयत्न करना चाहिए। जो देश बेकारी के भयंकर रोग से पीड़ित हो उसी देश में यदि कुछ लोग तो अपनी नौकरी करते हुए भी अतिरिक्त कार्य करते रहें, और कुछ को कोई काम ही न मिले- इस व्यवस्था को सुधारना चाहिए।
वर्तमान युग में कर निर्धारण विषय भी अत्यन्त जटिल है। सम्पत्ति-कर, उत्पादन-कर, विक्रय-कर आदि अनेक कर हैं। इन्हें सरल बनाना चाहिए, ताकि साधारण जनता इन्हें समझ सके। हमें महर्षि दयानन्द के इस नीति वाक्य को कि करों का उद्देश्य प्रजा-सुख है, सदा ध्यान में रखना चाहिए। करों का परिणाम जनता के जीवन को दूभर बनाना न हो। इनसे मूल्य-वृद्धि न बढ़े। केन्द्र, प्रान्त और स्थानीय करों में अधिकाधिक तालमेल हो। इन करों को इस प्रकार लगाया जाए कि उनसे विषमता दूर हो और आर्थिक विकास एवं योजना के लक्ष्य में मदद मिले। विक्रय-कर लगाते हुए इस बात का विशेष ध्यान रखें कि इनसे आवश्यक वस्तुएं सर्वसाधारण के लिए सुलभ रहें।

राज्य की आय का व्यय (बजट) : राज्य की आय (कर द्वारा तथा ब्याजादि द्वारा प्राप्त) का व्यय किस प्रकार किया जाए, यह इस बात पर निर्भर करता है कि राज्य किस बात को कितनी प्राथमिकता देता है। महर्षि दयानन्द द्वारा आय के व्यय का विवरण इस प्रकार है- सब राज्य की आय में से दशांश धर्म आदि के लिए नियत रखें। उस से वेद विद्या, धर्म, सुशिक्षा की वृद्धि के लिए अध्यापक और उपदेशक प्रचारित करें। आपत्तिकाल में राज्य और अनाथों की रक्षा भी उसी धन से करें।
-राज्य की आय के नवांशों में से दो भाग स्थिर कोष, दो अंश राजकुल, तीन अंश सेना विभाग, एक अंश स्थान विशेष और एक अंश शिल्पविद्या की उन्नति में लगाएं।
annapurna arya samaj

इस विवरण की व्याख्या निम्नलिखित प्रकार से की जा सकती है-
(1) महर्षि दयानन्द ने राज्य की 10 प्रतिशत आय शिक्षा व्यवस्था के लिए तथा वैदिक धर्म की उन्नति के लिए निर्धारित की है। उसमें से कुछ राशि आपातकाल में अनाथों आदि के लिए भी व्यय करने के लिए कहा है। 10 प्रतिशत आय का उपयोग उन्होंने शिल्प-विद्या (भौतिक विज्ञान) की उन्नति के लिए निर्धारित किया है, इस प्रकार लगभग 20 प्रतिशत धन शिक्षा पर व्यय करने के लिए कहा है।
(2) महर्षि दयानन्द ने 20 प्रतिशत धन स्थिर कोष के लिए निर्धारित किया है। यह कोष ऐसा हो जो सदा स्थिर रहे। दुधारू गौ की तरह इसका ब्याज देशोपयोगी कार्यों में व्यय होता रहे। इस स्थिर कोष के ब्याज से बढ़े धन से महर्षि दयानन्द ने वेद-विद्या, धर्म का प्रचार, विद्यार्थी, वेद मार्गोपदेशक तथा असमर्थ अनाथों के पालन में लगाने का परामर्श दिया है। वेद प्रचार से अभिप्राय है- देश में नैतिक, आध्यात्मिक एवं कर्तव्याकर्तव्य विषयक शिक्षा का विस्तार। इस प्रकार शिक्षा एवं नैतिकता के प्रसार के साथ-साथ आपातकाल में निर्धन लोगों पर ही इस धन को व्यय करना चाहिए। महर्षि दयानन्द देशोन्नति के लिए शिक्षा के प्रसार और निर्धनता के नाश को ही आवश्यक समझते थे।
(3) कुल बजट का 20 प्रतिशत धन महर्षि दयानन्द ने राज्यकार्य के लिए निर्धारित किया है। सारी सरकारी मशीनरी इसी धन के आधार पर चलती है। आज हमारे देश का अधिकांश धन इसी सरकारी मशीनरी पर व्यय हो रहा है। सरकारी व्यय 1951 की तुलना में आज हजारों प्रतिशत बढ़ चुका है। और यह व्यय निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है। सरकारी व्यय मुख्यत: दो कारणों से बढ़ रहे हैं- (1) अपव्यय (2) विलासिता। इन दोनों ही कारणों पर रोक लगानी अपेक्षित है। महर्षि दयानन्द ने धन के अपव्यय की तथा उसके अधार्मिक कार्यों में व्यय करने की घोर निन्दा की है, और इसे एक धर्म दूषण नाम देकर 8 क्रोधज व्यसनों में एक माना है। अत: अपव्यय से बचकर धन को जनता के हित में लगाना चाहिए।
(4) महर्षि दयानन्द ने कुल आय का 30 प्रतिशत अंश रक्षा व्यवस्था के लिए रखा है। देश की सुरक्षा के लिए यह राशि और भी बढाई जा सकती है।
(5) महर्षि दयानन्द ने कुल आय का 10 प्रतिशत धन स्थान विशेष के लिए निर्धारित किया है। स्थान-विशेष से अभिप्राय कुछ संस्थाओं को अनुदान तथा भवन-निर्माणादि से हो सकता है। यातायात के साधन, डाक, व्यापार और कृषि उन्नति आदि शेष सभी व्यय इसमें समाविष्ट किए जाने चाहिए। वर्तमान युग में अन्य भी अनेक प्रकार के विभाग हैं। उन सब का व्यय इसमें से निकालना चाहिए और यदि कम हो तो स्थिर कोष के ब्याज से इसका कार्य चलाएं। स्थान-विशेष के लिए निर्धारित धन हम राज्यों को भी अनुदान रूप में दे सकते हैं।
महर्षि दयानन्द द्वारा निर्धारित बजट को देखने से स्पष्ट है कि बजट का अधिकांश धन शिक्षा, निर्धन वर्ग तथा सुरक्षा-व्यवस्था पर व्यय होना चाहिए। राष्ट्र के लिए यही प्राथमिकताएं होनी अभीष्ट हैं।
पारिवारिक बजट : महर्षि दयानन्द ने पारिवारिक बजट के सम्बन्ध में भी एक-आध निर्देश दिए हैं। उनका कथन है- अपने व अपने कुटुम्ब का नित्य नैमित्तिक व्यय भी नियमपूर्वक करें। इसका अर्थ यही है कि परिवार को भी अपना दैनिक और पारिवारिक बजट बनाकर चलना चाहिए। जितनी चादर हो उतने ही पैर फैलाएं।

पारिवारिक बजट के सम्बन्ध में दयानन्द का दूसरा वाक्य है- सर्वदा सन्तानों की शिक्षा में धन का व्यय करें, किन्तु विवाह, मृत्यु आदि में न करें, अर्थात् धन का व्यय (1) अपने पुत्र और पुत्री की शिक्षा में करें। (2) उनके विवाह में न करें और न (3) घर में किसी वृद्ध की मृत्यु आदि पर करें। विवाह में न करें। विवाह में दहेज या वरी, प्रकाश और ध्वनि के झूठे प्रदर्शनों, भोजनादि मिथ्याडम्बरों में न फंसें। यह राजाज्ञा होनी चाहिए कि विवाहादि में प्रकाश, नृत्य, भोज आदि नहीं होंगे। दहेज को सम्भवत: हम कानून से न रोक पाऐं इसके लिए सामाजिक क्रान्ति का प्रयत्न करना होगा। इसी प्रकार मृत्यु पर भी हमारे देश में अनावश्यक रूप से बहुत व्यय करने की रूढ़ि है। इस पर रोक लगानी होगी। यदि सामर्थ्य है तो किसी शिक्षा-संस्था को दान देने की परम्परा डालनी होगी।
बेकारी की समस्या (असीमित उपभोग पर प्रतिबन्ध) : देश में बेकारी का भयंकर विष सम्पूर्ण अर्थ व्यवस्था को नष्ट कर रहा है। महर्षि दयानन्द के दृष्टिकोण से इस समस्या पर विचार करें तो (क) दूषित शिक्षा-प्रणाली और (ख) असीमित उपभोग इसके कारण हैं। अत: हम यहां इन दोनो कारणों की मीमांसा करेंगे।
बेकारी और असीमित उपभोग के उन्मूलन के लिए जो एक अन्य क्रान्तिकारी कदम उठाना अनिवार्य है वह है धन कमाने की अवधि का कम करना। प्राचीनकाल में आश्रम-व्यवस्था के अनुसार व्यक्ति केवल गृहस्थाश्रम में 25 से 50 वर्ष की आयु के मध्य ही धनार्जन किया करता था।
इस प्रकार इस अध्ययन में हमने महर्षि दयानन्द द्वारा प्रतिपादित अर्थव्यवस्था पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है। हमारे विचार में उनके द्वारा बताए गए सिद्धान्तों में यदि सरकार युगानुकूल कुछ परिवर्तन एवं परिवर्धन कर उन पर आचरण करे तो हमारा देश उत्तरोत्तर उन्नति करता चला जाएगा। -डॉ.प्रशान्त वेदालंकार

वेद ज्ञान

ved dvd

दिव्ययुग

divyayug patra

Divyayug account details

SSSSS