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आर्यसमाज का वर्तमान में महत्त्व कुछ लोग अपने ही दु:खों के गीत गाते हैं, होली हो या दीवाली, हरदम मातम मनाते हैं। उन्हीं की रागिनी पर झूमती है दुनिया, जो जलती चिता पर बैठकर वीणा बजाते हैं।

आर्यसमाज के स्वर्णिम-इतिहास के संदर्भ में उपरोक्त पंक्तियां आज कितनी सटीक प्रतीत होती हैं? वास्तव में ऐसे ही तो घर-फूंक कर तमाशा देखने वाले अलमस्त लोगों का टोला रहा है आर्यसमाज। ऐसे ही तो थे इस संगठन के संस्थापक-आनन्द कन्द आदित्य ब्रह्मचारी स्वामी दयानन्द। जिन्होंने अपनी अल्हड़ जवानी को लुटा दिया इस भारत देश के पुनर्जागरण के लिए खोए स्वाभिमान की पुन: प्राप्ति के लिए।

किसी लेखक के ये शब्द आज के सन्दर्भ में कितने सार्थक हैं यदि राजनैतिक आजादी देश को महात्मा गांधी ने दिलाई तो वैचारिक स्वतन्त्रता का शंखनाद करने वाले महर्षि दयानन्द थे। सहस्त्रों वर्षों से बद्धमूल रूढ़ियों से जराजीर्ण, स्वत्बक्षीण, चिरमलीन मानसिकता वाले मानव-समाज को नवल-धवल-उज्ज्वल आलोक में लाकर खड़ा करना उन्हीं का कार्य था। नारी-जाति की मुक्ति का द्वार स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज ने ही खोला था। सब को समान अधिकार दिलाकर मानवता को जीने की राह बताई थी। क्योंकि उनका ध्येय वाक्य था-‘असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिगर्मय। मृत्योर्मा अमृतं गमय। अर्थात् अन्धकार से प्रकाश की ओर चलो और मृत्यु से अमरत्व की ओर ब़ढो। अस्तु!
maharshi swami dayanand saraswati

हम किसी भी क्षेत्र में दृष्टि उठाकर देखें, आर्यसमाज का योगदान अविस्मरणीय रहा है। क्या समाज-सुधार, क्या शिक्षा-प्रसार, क्या दलितोद्धार सभी में आर्यसमाज की महती भूमिका रही है। राष्ट्र-रक्षा और राष्ट्र के नव-निर्माण में भी आर्यसमाज सर्वाग्रणी रहा है। स्वराज और स्वदेश की बात करने वाले स्वामी दयानन्द पहले भारतीय थे। उन्हीं से अगणित क्रांतिवीरों को स्वतन्त्रता की बलि-वेदी पर आत्मोत्सर्ग करने की उद्दाम उत्प्रेरणा मिली थी। उन्हीं के पद-चिह्नों पर चलकर पं. रामप्रसाद ‘बिस्मिल‘, सरदार भगतसिंह जैसे सैकड़ों नौजवानों ने अपना गर्म-गर्म लहू स्वतन्त्रता की देवी के अर्चन के लिए बहाया था। हिन्दी के सुप्रसिद्ध हास्य कवि काका-हाथरसी ने सच ही कहा है: ‘यदि न देते साथ देश के आर्यसमाजी। गोरे न जाते छोड़ देश को राजी-राजी।‘ जाति-रक्षा का कार्य भी आर्यसमाज का अहम रहा है। जहां स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज ने इस आर्य जाति (हिन्दू) को हजारों वर्षों की कुम्भकर्णी प्रगाढ़ निद्रा से झकझोर कर जगाया था, वहीं पर इसके अस्तित्व की रक्षा के लिए भी संघर्ष का बिगुल बजाया था। चाहे हैदराबाद में हिन्दुओं के अधिकार-हनन का मामला हो या सिन्ध में ‘सत्यार्थ-प्रकाश के प्रतिबंध का‘ आर्यसमाज ने डटकर लोहा लिया है और अपने जातीय अधिकारों की प्राणपन से रक्षा की है। इतना ही नहीं आर्यसमाज ने जहां अपने अछूत कहे जाने वाले भाइयों को गले लगाया, वहीं पर साथ ही बिछुड़कर विधर्मी बने बन्धुओं को भी शुद्धि का सुदर्शन-चक्र चलाकर अपना लिया था। क्या यह कोई सामान्य कार्य था? उस जमाने में अस्पृश्य व तथाकथित शूद्र का दर्शन भी द्विजों के लिए दुर्भाग्यपूर्ण माना जाता था। लेकिन आर्य जाति के सौभाग्य-सूर्य के रूप में आर्यसमाज का उदय हुआ, जिसने उसके सबल तमस्तोम को ध्वस्त करके रख दिया।

इस प्रकार आर्यसमाज के स्वर्णिम अतीत को देखकर हमारा मस्तक गर्वोन्नत हो जाता है। लेकिन कोई भी जीवंत जाति या संगठन केवल अतीत के गौरव-गान से ही संतुष्ट नहीं रहा करती, उसे तो राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के निम्नलिखित शब्दों में आत्मालोचन कर अपना मूल्यांकन करना चाहिए-
हम कौन थे क्या हो गए और क्या होंगे अभी।
आओ मिलकर ये विचारें ये समस्याएं सभी॥

आज हम किस धरातल पर खड़े हैं, यह जानना जरूरी है। आज भी आर्यसमाज सर्वथा निष्क्रिय नहीं है। गांव या नगरों में स्थानीय आर्यसमाजों की अपनी भूमिका है। दैनिक या साप्ताहिक यज्ञ एवं सत्संग तथा संस्कार समारोह कराकर जन-जन के लिए वैदिक-वीथि का मार्ग प्रश्स्त करना आर्यसमाज का नित्य-नैमित्तिक कार्य है। उसका उद्देश्य ही यही है कि इस आत्म-विस्मृत जाति को पुन: इसके स्वत्व का भान हो। आर्यसमाज का ध्येय है-

आर्य हमारा नाम है,
वेद हमारा धर्म।
ओ3म् हमारा देव है,
सत्य हमारा कर्म।

देश के कोने-कोने में आर्यसमाज की शिक्षण संस्थाओं का विस्तृत जाल फैला हुआ है। सैकड़ों की संख्या में गुरुकुल महाविद्यालय आदि हैं, जिनमें राष्ट्रभाषा हिन्दी के माध्यम से उच्च शिक्षा दी जाती है जो कि वर्तमान में प्रचलित दोषपूर्ण शिक्षा पद्धति का राष्ट्रीय-विकल्प सिद्ध हो सकती है, यदि भारतीय सरकार उसे अपना सके।

वर्तमान में प्रासंगिकता - आर्यसमाज का भूतकाल सुहावना रहा है, लेकिन आज नए युग की अपनी नई-नई चुनौतियां हैं, जिन्हें उसे स्वीकार करना पड़ेगा और उनका भरपूर उत्तर देना होगा। राष्ट्रकवि के शब्दों में कह सकते हैं-
उज्ज्वल अतीत था,
भविष्य भी महान है।
सुधर जाए वह अब,
जो कि वर्तमान है॥
arya samaj annapurna indore mp
आज बहुत से लोग इस तरह की बातें प्राय: करते रहते हैं कि आर्यसमाज तो अब मर गया है(?) अब तो विज्ञान का युग है कौन धर्म-कर्म की बातें सुनेगा? अंध विश्‍वास और भेदभाव तो आज स्वंय ही समाप्त होता जा रहा है। समाज में अपने आप नई चेतना आती जा रही है और फिर अब तो केवल मात्र हिन्दुओं के संगठित रहने भर की जरुरत है। खंडन-मंडन का जमाना भी अब जा चुका है आदि-आदि बातें लोग करते पाए जाते हैं।
हम समझते हैं कि इस तरह की बातें वे लोग करते हैं जो लोग या तो निराशावादी हैं या फिर वे लोग प्रतिक्रियावादी हैं। जो आर्यसमाज को या तो अच्छी तरह से जानते नहीं और जानते भी हैं तो ठीक से मानते नहीं। इसीलिए ईर्ष्यावश इस प्रकार की ऊल-जलूल बातें करते हैं। जो लोग यह कहते हैं कि अब आर्यसमाज की कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई है, पहले हम उनका उत्तर देना चाहेंगे। हम उन लोगों से पूछना चाहते हैं, क्या आज भी हमारे समाज में भेदभाव की दीवारें नहीं खड़ी हैं? क्या आज भी हमारे समाज में सामाजिक कुरीतियां नहीं हैं। क्या आज हमारे सामने चरित्र (राष्ट्रीय) का संकट नहीं हैं? लोगों में छल-कपट का व्यवहार नहीं हैं। क्या आज भी धर्म के नाम पर यहां पर पाखण्डी मुस्टण्डे लोगों की तोंदें नहीं पल रहीं हैं? क्या आज एक से एक बढ़कर अपने को भगवान बनाकर नहीं उतर आए हैं? हम पूछते हैं क्या यह सब है कि नहीं समाज में? और यदि यह है तो इनके निवारण का एकमात्र अमोघास्त्र आर्यसमाज आज क्यों अप्रासंगिक हो रहा है। क्या आज उसकी तलवार के पानी को जंग लग गया है या उसके तेग की धार कुंद हो गई हैं। नहीं ऐसा कुछ नहीं है, यदि संसार में असत्य है तो सत्य उससे संघर्ष करेगा ही। यदि अंधेरे का साम्राज्य है तो देव-दिवाकर को उसे छिन्न-भिन्न करना ही पड़ेगा। रही दूसरी बात खण्डन-मण्डन न करने की और जातीय हिन्दू संगठन की। जहां तक हिन्दुत्व की रक्षा का प्रश्‍न है, उसमें आर्यसमाज कभी पीछे नहीं रहा, बल्कि अग्रणी रहा है। संगठन शक्ति का परिचय हमने अपने सनातनी या वैष्णव भाइयों के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर उस समय में दिया है, जबकि उन पर कोई बाहरी या विधर्मियों से संकट आया हो। वह चाहे हैदराबाद हो या दिल्ली अथवा पंजाब, हमने दूसरों की धधकती आग में भी कूद कर दिखाया है। बल्कि दूसरे भाई इस मामले में कई बार अपनी संकीर्णता का परिचय हम से घृणा करके देते हैं और हमें अकेला छोड़ देते हैं। लेकिन घबराते तो वे हैं जो किसी के सहारे पर जीते हैं। आर्यसमाज ने तो सतत संघर्ष करना सीखा है। उसकी तो यह मान्यता रही है कि-
बहादुर लोग कब किसी का
आसरा अहसान लेते हैं।
उसी को कर गुजरते हैं
जो मन में ठान लेते हैं॥

तो हमें तो किसी से कोई गिला नहीं कि हमारा उन्होंने साथ नहीं दिया, लेकिन हमने अपने दूसरे भाइयों को कभी भी यह गिला करने का मौका नहीं दिया। यह ठीक है कि हमारे आपसी सैद्धान्तिक मतभेद हैं, वे अपनी जगह हैं, वे रहेंगे, लेकिन औरों के लिए ‘हम सब एक हैं‘ यही कहेंगे। और हमने तो कहा ही नहीं करके भी दिखाया है। रही बात खण्डन-मण्डन की वह तो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार और कर्तव्य है। जब तक ढोंग और पाखण्ड है। आडम्बर और दिखावा और छलावा धर्म के रुप में रहेगा, आर्यसमाज चुप नहीं रहेगा। वह इसके विरूद्ध लड़ता ही रहेगा। हम ऐसे किसी सिद्धान्तविहीन संगठन के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं है, जहां पर हमें समझौता करके अपने वेद प्रतिपादित सत्य-सनातन सिद्धान्तों की बलि च़ढानी पड़े। हमसे बड़ा कोई भी हिन्दू हितों का हिमायती या रक्षक विश्‍व में नहीं है। इस बात का साक्षी हमारा विगत काल का इतिहास है। आज हवा में मुक्का घुमाकर चाहे जो तीस मारखां बन ले।

इसलिए रूढ़िग्रस्त अन्धविश्‍वासों से जकड़े, भेदभाव की दीवारों में बंधे भारतीय समाज को आज भी आर्यसमाज और वेद के दिव्य आलोक की आवश्यकता है और आर्यसमाज केवल अपनी उन्नति को ही उन्नति नहीं मानता, वह तो सभी की उन्नति चाहता है। फिर जिस संगठन का ध्येय ही ‘कृण्वन्तो विश्‍वमार्यम्‘ हो, वह कैसे मौन रहकर दानवता और अन्याय-अधर्म का यह क्रूर अट्टहास देख सकता है। निर्झर की धारा मैदान में आकर मद्धिम तो पड़ सकती है, लेकिन रुक नहीं सकती। आर्यसमाज का यह आलोकदीप जलता ही रहेगा।

इस आशा के साथ कि
‘उजाले की एक किरण अन्धेरे पर भारी होगी,
रात उनकी सही, सुबह हमारी होगी।‘ 
- डॉ. धर्मचन्द विद्यालंकार

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