ऋषि दयानन्द ने अपना सारा जीवन गुरु को दिए गए वचनों का पालन करने में अर्पित कर दिया। उनका चिन्तन शुद्ध वैदिक था। उन्होंने भ्रम, अंधविश्वास व कुरीतियों को दूर करने का सदैव प्रयास किया। उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश जैसा अमर ग्रन्थ लिखकर अनेक रूढियों और भ्रान्तियों को दूर किया। इसके अतिरिक्त ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, संस्कारविधि, व्यवहारभानु आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की और यजुर्वेद का सम्पूर्ण भाष्य करने के बाद ऋग्वेद के सातवें मण्डल के इकसठवें सूक्त के दूसरे मंत्र तक का भाष्य किया। महर्षि ने वेदार्थ पद्धति में अपना अपूर्व योगदान दिया है। महर्षि दयानन्द द्वारा वेदार्थ की अध्यात्म, अधिदैवत, अधियज्ञ और अधिभूत सम्बन्धी पद्धतियाँ अपनाई गई, जो पूर्व के आचार्यों को भी मान्य थीं। महर्षि ने ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका के प्रतिज्ञाविषय में लिखा है कि जिन मन्त्रों के श्लेश आदि अलंकार से पारमार्थिक और व्यवहारिक, दोनों प्रकार के अर्थ सम्भव हैं, उन मन्त्रों के वे अपने वेदभाष्य में दोनों अर्थ करेंगे। अपनी इस प्रतिज्ञा का पालन करते हुए उन्होंने वेद मन्त्रों के दोनों प्रकार के अर्थ किए हैं। उनके मन्त्रों के अर्थ आध्यात्मिक, अधिदैवत या अधियज्ञ पद्धति के हैं। महर्षि ने याज्ञिक पद्धति को अप्रतिम योगदान दिया है।
Rishi Dayanand dedicated his entire life to following the promises given to his Guru. His thinking was pure Vedic. He always tried to remove misconceptions, superstitions and evil practices. He removed many stereotypes and misconceptions by writing an immortal book like Satyarth Prakash. Apart from this, he composed many books like Rigveda, Dibhashyabhumika, Aryabhivinay, Sanskarvidhi, Vyavarbhanu etc. and after commenting the entire Yajurveda, he also commented till the second mantra of the sixty-first Sukta of the seventh chapter of Rigveda. Maharishi has made a unique contribution to the Vedartha system.
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